2019 जनादेश के मायने

अंततः 2019 आम चुनाव का परिणाम आ ही गया और 'अबकी बार 300 पार' के नारे को बीजेपी ने आखिर चरितार्थ कर ही लिया। भारतीय लोकतंत्र में केवल जीत माने रखती है और कुछ नहीं। जीत कैसे मिली, क्यों मिली इत्यादि प्रश्न बेमानी होते हैं। देश में चुनाव विकास, बेरोज़गारी, महंगाई, कालाधन, भ्रष्टाचार, किसान, शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण, आत्महत्या, अपराध इत्यादि जन सरोकार के मुद्दों के बजाय चौकीदार, चायवाला, नामदार, शहीद, राष्ट्रवाद, वन्देमातरम, जाति और धर्म इत्यादि के नारों के बीच लड़ा गया। यह राजनीतिक दिवालियेपन का सूचक है या शातिर राजनीति का सूचक है, इस पर विचार ज़रूर कीजियेगा ? मेरा व्यक्तिगत मानना है कि यह सोच का नहीं शोध का विषय होना चाहिए। यदि 2014 से 2019 के बीच के समय को देखा जाय तो देश में मुस्लिम, युवा, किसान, छोटे व्यापारी, गृहणियां इत्यादि मोदी सरकार से नाराज़ चल रहे हैं। और यही तबका सबसे ज्यादा मतदान करता है। अब यहाँ एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब यह तबका नाराज़ है तो इतनी बड़ी संख्या में मोदी सरकार को किसने और क्यों वोट दिया ? चूँकि मोदी सरकार पहले से ज्यादा सीटों पर जीती है तो स्वाभाविक है कि जनता ने वोट तो दिया ही होगा ? लोकतंत्र में यदि वर्तमान सरकार पुनः जीत कर कर आती है तो इसका सीधा सा अर्थ है कि देश की जनता ने उनकी विचारधारा, कार्यक्रम और कार्यशैली को स्वीकार कर लिया है ? या देश में चल रहे मोदी सिस्टम ने 'सत्ता के लिए कुछ भी करेगा' को आत्मसाध कर लिया है ? यदि ऐसा है भी तो इसमें गलत क्या है ? आखिर में जो जीता वही सिकंदर कहलाता है।लेकिन जो हार गया वो ईवीएम और चुनाव आयोग को कोसता हुआ नज़र आता है (कुछ अपवादों को छोड़ कर)। जो चुनाव हार गए और जो ईवीएम और चुनाव आयोग को कोस रहे हैं उन लोगों ने चुनाव से पहले ही इन बातों को क्यों नहीं देखा ? वो ईवीएम और चुनाव आयोग के खिलाफ उच्च न्यायालय जा सकते थे या कोई बहुत बड़ा जन आंदोलन खड़ा कर सकते थे या चुनाव का बहिष्कार भी कर सकते थे ? लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया क्यों ? विपक्षी नेताओं और दलों को चाहिए कि देश में चल रहे वर्तमान मोदी सिस्टम का बारीकी से अध्ययन करें और उससे उन्नत किस्म का सिस्टम विकसित करें ? या फिर पूरे सबूतों के साथ ईवीएम प्रणाली और चुनाव आयोग को बेनकाब करें ना कि इन दोनों को कोसते रहें। किसी भी लोकतंत्र के लिए पूर्णतया पारदर्शी एवं संदेह मुक्त चुनावी प्रक्रिया का सम्पन्न होना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से भारत में बहुत लम्बे समय से चुनावी प्रक्रिया पर अंगुली उठती रही है। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही है। विकसित देशों में पूर्णतया पारदर्शी एवं संदेह मुक्त चुनावी प्रक्रिया को सुनिश्चित करने के लिए ही ईवीएम कि जगह बैलेट पेपर्स से चुनाव सम्पन्न होते हैं, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है और यहाँ विशेष बात यह है कि लोकतंत्र का महा रक्षक माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी इस मामले में उदासीन ही है क्यों ? यह बात समझ से परे है ? आप भी इस पर ज़रूर विचार करियेगा ? देश राजनीति के एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है जहाँ जन सरोकार के मुद्दे अब चुनावी मुद्दे नहीं बनेंगे शायद ? धन, बल, सुपर टेक्नोलॉजी, बेहतर चुनावी रणनीति ही अब आगामी चुनावों की सफलता एवं परिणामों को प्रभावित और सुनिश्चित करेंगें। एक आम मतदाता, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में मुझे 2019 का यह जनादेश ना तो सहज लगता है और ना ही सच्चा। ऐसा मेरा मानना है लेकिन इसके लिए मेरे पास कोई साक्ष्य नहीं है और ना ही मेरे पास साक्ष्य जुटाने का सामर्थ्य और संसाधन है। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि यह जनादेश शत-प्रतिशत कृत्रिम भी नहीं है। अंततः यदि 2019 का यह जनादेश सच्चा है तो भी और यदि किसी सीमा तक कृत्रिम है तो भी, भविष्य में इसके परिणाम कष्टकारी ही प्राप्त होंगें, जिसका अनुमान आप अपने वौद्धिक स्तर के अनुसार कर सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में नयी-नयी परिभाषावों का सृजन हो रहा है और देश तेज़ी से बदल रहा है, लेकिन यह बदलाव भविष्य में क्या-क्या गुल खिलायेगा इसका आकलन करने के लिए आप पूर्णतया स्वतंत्र हैं।

लेखक एवं प्रस्तुति सुभाष वर्मा
Writer-Journalist-Social Activist
www.LoktantraLive.in
loktantralive@hotmail.com

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