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Showing posts from January, 2020

लोकतंत्र के बाजार में राजनीतिक उत्पाद

लोकतंत्र के बाजार में राजनीतिक उत्पाद (Political Product in Democracy Market) यह लेख उन सभी सत्ताधारी एवं सत्ताविहीन राजनीतिक व्यक्ति, सत्ताधारी एवं सत्ताविहीन राजनीतिक दल, देश के सभी मतदाता और भविष्य में इन क्षेत्रों में जो आने वाले हैं को समर्पित है जिस प्रकार कम्पनियां अपने सेल्स मैन या सेल्स टीम के साथ अपने उत्पाद को देश के बाजार में बेचने का काम करती हैं उसी प्रकार कंपनी रूपी राजनीतिक दल अपने सेल्स मैन या सेल्स टीम रूपी नेताओं को अपने राजनीतिक उत्पाद (Political Product) को लोकतंत्र के बाजार में (Democracy Market or Market of Democracy) बेचने का काम करती हैं l सभी नेता या राजनीतिक दल अपनी सुविधा और ज़रूरत के हिसाब से समय-समय पर राजनीतिक उत्पादों को बेचने का काम करते रहते हैं l आजकल राजनीतिक उत्पाद के रूप में जो उत्पाद प्रचलन में हैं उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं : विकास, अपराध, कानून-व्यवस्था, सुरक्षा, शिक्षा, किसान, भुखमरी, रोज़गार, चुनावी वादे, सब्सिडी, क़र्ज़ माफ़ी, चुनावी जुमले, आरक्षण, सरकारी आंकड़ेबाजी, सड़क, बिजली, पानी, दलित, महिला, भ्रष्टाचार, कालाधन, नक्सलवाद, आतंकवाद, दंगे

वक़्त की मांग-चुनाव सुधार

इस देश का कुछ नहीं हो सकता या इस देश में कुछ भी हो सकता है ? सामान्यतः ये वाक्य हम सभी आम जनता से सुनते रहते हैं l निश्चित तौर पर एक तरफ इसमें निराशा दिखती है तो दूसरी तरफ आशा की संभावना भी नज़र आती है l लेकिन इन दोनों का सम्बन्ध देश की व्यवस्था एवं व्यवस्था कारकों से है l और व्यवस्था की समस्या निश्चित तौर पर भारतीय चुनावी सिस्टम से जुड़ा हुआ है अर्थात यदि चुनावी सिस्टम को बदला जाए तो देश की 95% समस्या स्वयं समाप्त हो जाएगी l जितना बड़ा चुनाव, उतना बड़ा चुनावी खर्चा (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) अंततः चुनाव पश्चात उतना बड़ा भ्रष्टाचार और इसका सीधा असर व्यवस्था पर होता है l आज आवश्यकता है कि पूरी चुनावी प्रक्रिया का पुनः निर्धारण किया जाय जिसमें जबाबदेही एक मुख्य बिंदु हो l इसी सम्बन्ध में मैनें लगभग समाज के हर वर्ग से लोगों की राय ली और चुनावी सुधार के लिए जो सुझाव प्राप्त हुए वह यहाँ प्रस्तुत है :- 1. विधान सभा या विधान परिषद् के चुनाव में नामांकन वाले दिन उम्मीदवार की अधिकतम आयु 60 वर्ष होनी चाहिए l 2 . लोकसभा या राज्यसभा के चुनाव में नामांकन वाले दिन उम्मीदवार की अधिकतम आयु 70 व

कुछ नया करते हैं ...?

देश की आज़ादी को 70 वर्ष बीत चुके हैं l इन 70 वर्षों में हमने लोकतंत्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए बहुत सारे प्रयोग कर लिए हैं जैसे : अल्पमत की सरकार भी चुनी और पूर्ण बहुमत की सरकार भी चुनी, सामान्य बहुमत वाली सरकार भी चुनी, गठबंधन वाली सरकार भी चुनी l लेकिन व्यवस्था की कार्यप्रणाली में कुछ खास परिवर्तन नहीं मिला देश को l कहने को तो देश ने बहुत विकास किया है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरा वाली बात है दूसरे शब्दों में जैसे कोई व्यक्ति जन्म के 70 वर्षों के बाद 70 वर्ष का कहलाता है अर्थात वह 70 वर्ष का तो हो गया लेकिन उसकी हालत क्या वैसी भी है जैसी होनी चाहिए, उत्तर है नहीं l वही हालत देश की भी है क्योंकि 70 वर्षों के बाद भी देश पूर्णतया साक्षर नहीं हो पाया, जो हुआ भी है उसकी गुणवक्ता सबके सामने है, बिजली, पानी, सड़क, झुग्गी-झोपडी, कच्चे-मकान, भुखमरी आदि बुनियादी ज़रूरतें भी हम पूरा नहीं कर पाए l इसके लिए एक नहीं अनेक कारण हैं l निश्चित रूप से यह सोच का नहीं शोध का विषय होना चाहिए l इस देश का कुछ नहीं हो सकता, इस देश में कुछ भी हो सकता है, हम क्या कर सकते हैं, हम कुछ नहीं कर सकते, हम क

समय की पुकार-व्यवस्था में बदलाव

इस देश का कुछ नहीं हो सकता या इस देश में कुछ भी हो सकता है ? सामान्यतः ये वाक्य हम सभी आम जनता से सुनते रहते हैं l निश्चित तौर पर एक तरफ इसमें निराशा दिखती है तो दूसरी तरफ आशा की संभावना भी नज़र आती है l लेकिन इन दोनों का सम्बन्ध देश की व्यवस्था एवं व्यवस्था कारकों से है l और व्यवस्था की समस्या निश्चित तौर पर भारतीय शासकीय व्यवस्था तंत्र एवं जन प्रतिनिधियों से जुडी हुई है l इस सम्बन्ध में मैंने लगभग समाज के हर वर्ग से बात की और परिणाम स्वरुप जो विचार एवं सुझाव प्राप्त हुए वह यहाँ निम्न बिंदुओं में प्रस्तुत है जो निश्चित रूप से गहन विचार एवं शोध के लिए प्रेरित करते हैं :- 1. किसी भी विधायक या सांसद को केवल उसके कार्यकाल में ही वेतन, भत्ता इत्यादि सुविधाएँ मिलनी चाहिए l 2. किसी भी पूर्व विधायक या पूर्व सांसद को कोई भी पेंशन या लाभ नहीं दिया जाना चाहिए l विशेष परिस्तिथियों को छोड़ कर l 3. गुप्तचर संस्थाओं के सुझाव के अनुसार ही किसी भी विधायक या सांसद को सुरक्षा दी जानी चाहिए l 4. विधान सभा या लोकसभा में मंत्री पद दिए जाने के मामले में मंत्रालय से सम्बंधित शिक्षित या सम्बं

चार साल - मोदी सरकार

जी हाँ चार साल पहले मई 2014 में राजनीति के एवरेस्ट पर फतह हासिल करने के बाद अर्थात अभूतपूर्व सांसद संख्या बल के साथ मोदी सरकार का आगाज़ हुआ था l यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एवरेस्ट पर स्थाई प्रवास नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ मौसम बहुत तेज़ी से बदलता रहता है और अंततः नीचे आना ही पड़ता है l इसका जीता-जगता उदहारण मई 2014 और मई 2018 में बीजेपी के सांसदों की लोकसभा में संख्या के रूप में देखा जा सकता है l मोदी सरकार असल में तीन तरह के भक्तों की सरकार है l पहला स्थाई भक्त दूसरा मज़बूरी वाला या समयानुसार वाला भक्त और तीसरा अंध भक्त l इन तीनों भक्त समूहों पर मई 2014 तक मोदी सरकार की पूरी पकड़ थी l लेकिन मई 2018 आते-आते अर्थात पिछले चार सालों में दूसरी और तीसरी श्रेणी के भक्त समूहों पर मोदी सरकार की पकड़ निश्चित रूप से कमज़ोर हुई है, इसका प्रमाण मई 2014 और मई 2018 में बीजेपी के सांसदों की लोकसभा में संख्या के रूप में भी देखा जा सकता है l निश्चित रूप से मोदी सरकार को इस पर मंथन नहीं शोध करना चाहिए l पिछले चार सालों में देश की जनता ने मोदी सरकार द्वारा प्रदत्त बाढ़ और सूखा दोनों के द

2019 जनादेश के मायने

अंततः 2019 आम चुनाव का परिणाम आ ही गया और 'अबकी बार 300 पार' के नारे को बीजेपी ने आखिर चरितार्थ कर ही लिया। भारतीय लोकतंत्र में केवल जीत माने रखती है और कुछ नहीं। जीत कैसे मिली, क्यों मिली इत्यादि प्रश्न बेमानी होते हैं। देश में चुनाव विकास, बेरोज़गारी, महंगाई, कालाधन, भ्रष्टाचार, किसान, शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण, आत्महत्या, अपराध इत्यादि जन सरोकार के मुद्दों के बजाय चौकीदार, चायवाला, नामदार, शहीद, राष्ट्रवाद, वन्देमातरम, जाति और धर्म इत्यादि के नारों के बीच लड़ा गया। यह राजनीतिक दिवालियेपन का सूचक है या शातिर राजनीति का सूचक है, इस पर विचार ज़रूर कीजियेगा ? मेरा व्यक्तिगत मानना है कि यह सोच का नहीं शोध का विषय होना चाहिए। यदि 2014 से 2019 के बीच के समय को देखा जाय तो देश में मुस्लिम, युवा, किसान, छोटे व्यापारी, गृहणियां इत्यादि मोदी सरकार से नाराज़ चल रहे हैं। और यही तबका सबसे ज्यादा मतदान करता है। अब यहाँ एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब यह तबका नाराज़ है तो इतनी बड़ी संख्या में मोदी सरकार को किसने और क्यों वोट दिया ? चूँकि मोदी सरकार पहले से ज्यादा सीटों पर जीती है तो स्वाभाविक ह

राष्ट्रवाद या राजनीतिवाद या पार्टीवाद ?

2019 आम चुनावों में भारी जीत मिलने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह में लगभग 8000 लोगों को आमंत्रित किया था को की अपने आपमें एक रिकॉर्ड है। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि इन्होनें चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल जीत के अभियान में संघर्ष करते हुए BJP के जो कार्यकर्ता मारे गए थे उनके परिजनों को भी बुलाया था, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। PM किसी को भी बुला सकते हैं। लेकिन यदि यह पिछले पांच वर्षों में देश के लिए शहीद हुए सैनिकों और अर्धसैनिकों के परिजनों को भी बुला लेते तो अच्छा होता और देश को एक अच्छा सन्देश भी जाता। लेकिन यदि इतना भी नहीं कर सकते थे तो कम से कम पुलवामा में शहीद हुए जवानों के परिजनों को ही बुला लेते तो भी अच्छा होता क्योंकि इनके नाम पर वोट भी माँगा गया था। लेकिन यह भी नहीं हो सका। क्या कारण हो सकता है यह जानने के लिए ज्यादा दिमाग खपाने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि यह बिल्कुल विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक फैसला था। जहाँ तक नरेंद्र मोदी का सवाल है, तो मैं पहले भी कहता आया हूँ कि नरेंद्र मोदी पूर्ण रूप से और विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक व्यक्ति ह

LoktantraLive

LoktantraLive.in   मात्र एक पोर्टल नहीं बल्कि एक ऐसे माध्यम का प्लेटफार्म है जहाँ लोक की बात को तंत्र तक पहुँचाने का प्रयास किया जाता है और जहाँ सामाजिक एवं राजनीतिक से सम्बंधित विषयों पर लेख , कविता , व्यंग आदि पोस्ट की जाती है l  यदि आप लेखक , पत्रकार , कवि , बुद्धिजीवी हैं या व्यवस्था में व्याप्त खामियों में परिवर्तन के समर्थक हैं तो आप केवल सामाजिक एवं राजनीतिक से सम्बंधित विषयों पर अपना लेख , कविता , व्यंग्य अथवा अपनी लेखनी को www.LoktantraLive.in   पर पोस्ट कर उसको नया आयाम दे सकते हैं और यहाँ पर उन लोगों का विशेष रूप से स्वागत है जिनकी रचनाओं को अभी तक प्रिंट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में स्थान नहीं मिला या उचित सम्मान नहीं मिला है । Links for LoktantraLive.in www.loktantralive.in www.facebook.com/LoktantraLive                  आपकी लेखनी एवं सुझावों का सदैव स्वागत है ! अग्रिम धन्यवाद ! लेखक एवं प्रस्तुति Subhash Verma Writer-

सोच इंडिया सोच

किसी भी विषय पर हम क्या सोचते हैं , हमारे अपने लोग क्या सोचते हैं , समाज क्या सोचता है और शासन , प्रशासन , न्यायपालिका , मीडिया , बुद्धिजीवी क्या सोचते हैं और उनका एक दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ता है , यह बहुत ही महत्वपूर्ण है । जहां एक तरफ एक सोच कई समस्याओं को जन्म देती है तो वहीं दूसरी तरफ एक सोच कई समस्याओं का समाधान भी कर देती है । “सोच इंडिया सोच” यह एक स्तम्भ नहीं बल्कि यह एक मर्यादित लोकतान्त्रिक अभियान है जिसके माध्यम से आप और मैं मिलकर हम बनेगें और एक जिम्मेदार नागरिक बनकर लोकतंत्र में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का सामुहिक प्रयास है यह l अगर हम सभी मिलकर थोड़ा प्रयास करेगें तो निश्चित ही इसका परिणाम बहुत ही दूरगामी और समृद्ध होगा l अतः आपसे अनुरोध है कि आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें तथा इसका अवलोकन करें और “अपनी सोच को दीजिये नया आयाम” एवं अपनी सोच को सार्थकता के साथ दुनियां के सामने रखें और देश हित में आगे बढ़ें l Links for Soc