लोकतंत्र की कथा - व्यथा
"राजनीतिक" लोकतंत्र की कथा-व्यथा
भारत चुनाओं का देश है l जहाँ पूरे वर्ष कोई ना कोई चुनावी हलचल चलती रहती है l यह एक पूर्णकालिक व्यवस्था है जो पूरे वर्ष कार्यरत रहती है l इसकी कार्यप्रणाली का अपना ऩफा-नुकसान है, जो कि हर किसी भी व्यवस्था में होता है l
देश में कोई भी नेता या कोई भी राजनीतिक दल निर्भीक एवं निःसंकोच भाव से लंबे-चौड़े वादे करते रहते हैं l क्योंकि उनके इस कृत्य में वर्तमान व्यवस्था में कोई भी जबाबदेही नहीं बनती है l वर्तमान में देश की चुनावी व्यवस्था का हाल ही कुछ ऐसा है l शायद यही कारण है कि आज़ादी के 70 साल में भी भारत पूरी तरह शिक्षित राष्ट्र नहीं बन पाया है l
जनता अर्थात् मतदाता का हाल यह है कि वह कभी भी अपने विवेक से वोटिंग नहीं करती है l हर मतदाता या तो मीडिया से प्रभावित होकर वोट करता है या अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण वोट करता है या अपने परिवार के दवाब में वोट करता है या पार्टी देखकर वोट करता है l हालत ये हो गयी है की कहीं मतदाता को पार्टी का पता ही नहीं फिर भी उसको वोट करता है और कहीं मतदाता को उम्मीदवार का पता नहीं फिर भी उसको वोट करता है ।
जागरूकता का आलम ये है की निगम के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे चलते हैं और प्रदेश या देश के चुनाव में लोकल मुद्दे छाये रहते हैं । मतदात ये समझने को तैयार नहीं की जो सब्सिडी या मुफ्त उसको दिया जा रहा है उसकी भरपाई भी उसकी जेब से ही हो रही है । नेता या राजनीतिक दल इन बातों को भली भाँति जानते हैं l अंततः यही कारण है कि आज भी जनता त्रस्त है और नेता मस्त l समझ में नहीं आता कि देश 70 वर्ष का बच्चा है या 70 वर्ष का जवान या 70 वर्ष का बूढ़ा l
सर्वविदित है कि देश में नेताओं की विश्वसनीयता नियमित रूप से गिरती जा रही है तथा मतदाताओं में निराशा नियमित रूप से बढ़ती जा रही है l अब समय आ गया है कि नेताओं को कुछ भी वादा करने से पहले उसको अमलीजमा पहनाने के बारे में भी सोचना चाहिए तथा मतदाताओं को भी बिना किसी से प्रभावित हुए देश हित एवं जनहित में ही वोट करना चाहिए l
राजनीति जो कभी समाज सेवा या जन सेवा का प्रतिक हुआ करती थी आज एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है , नेताओं का चुनाव के समय दिया गया विवरण इसका जीता जागता प्रमाण है । आज राजनीति में करोड़ पतियों की भरमार है । ऐसे में कोई परिवर्तन कैसे संभव होगा ये सोच का नहीं शोध का विषय है ।
देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है इसलिए पुराने लोग हाशिए पर लग रहे हैं और नये लोगों का राजनीति में धीरे-धीरे ही सही आगमन हो रहा है जो कि निश्चित रूप से एक शुभ संकेत है l
अब समय आ गया है कि नेता अपने गिरेबान में झाँकें और मतदाता भी अपने विवेक का इस्तेमाल कर देशहित एवं जनहित में ही वोट करें l चुनावी प्रक्रिया एवं व्यवस्था में भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है, नहीं तो देश विकासशील की श्रेणी से कभी बाहर नहीं निकल पाएगा l
"लोकतंत्र की कथा-व्यथा"
"डिफेंडर" (DEFENDER ) हिंदी मासिक पत्रिका जून 2017 का अंक
http://www.janmedia.in/uploads_pdf/defender_june.pdf
भारत चुनाओं का देश है l जहाँ पूरे वर्ष कोई ना कोई चुनावी हलचल चलती रहती है l यह एक पूर्णकालिक व्यवस्था है जो पूरे वर्ष कार्यरत रहती है l इसकी कार्यप्रणाली का अपना ऩफा-नुकसान है, जो कि हर किसी भी व्यवस्था में होता है l
देश में कोई भी नेता या कोई भी राजनीतिक दल निर्भीक एवं निःसंकोच भाव से लंबे-चौड़े वादे करते रहते हैं l क्योंकि उनके इस कृत्य में वर्तमान व्यवस्था में कोई भी जबाबदेही नहीं बनती है l वर्तमान में देश की चुनावी व्यवस्था का हाल ही कुछ ऐसा है l शायद यही कारण है कि आज़ादी के 70 साल में भी भारत पूरी तरह शिक्षित राष्ट्र नहीं बन पाया है l
जनता अर्थात् मतदाता का हाल यह है कि वह कभी भी अपने विवेक से वोटिंग नहीं करती है l हर मतदाता या तो मीडिया से प्रभावित होकर वोट करता है या अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण वोट करता है या अपने परिवार के दवाब में वोट करता है या पार्टी देखकर वोट करता है l हालत ये हो गयी है की कहीं मतदाता को पार्टी का पता ही नहीं फिर भी उसको वोट करता है और कहीं मतदाता को उम्मीदवार का पता नहीं फिर भी उसको वोट करता है ।
जागरूकता का आलम ये है की निगम के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे चलते हैं और प्रदेश या देश के चुनाव में लोकल मुद्दे छाये रहते हैं । मतदात ये समझने को तैयार नहीं की जो सब्सिडी या मुफ्त उसको दिया जा रहा है उसकी भरपाई भी उसकी जेब से ही हो रही है । नेता या राजनीतिक दल इन बातों को भली भाँति जानते हैं l अंततः यही कारण है कि आज भी जनता त्रस्त है और नेता मस्त l समझ में नहीं आता कि देश 70 वर्ष का बच्चा है या 70 वर्ष का जवान या 70 वर्ष का बूढ़ा l
सर्वविदित है कि देश में नेताओं की विश्वसनीयता नियमित रूप से गिरती जा रही है तथा मतदाताओं में निराशा नियमित रूप से बढ़ती जा रही है l अब समय आ गया है कि नेताओं को कुछ भी वादा करने से पहले उसको अमलीजमा पहनाने के बारे में भी सोचना चाहिए तथा मतदाताओं को भी बिना किसी से प्रभावित हुए देश हित एवं जनहित में ही वोट करना चाहिए l
राजनीति जो कभी समाज सेवा या जन सेवा का प्रतिक हुआ करती थी आज एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है , नेताओं का चुनाव के समय दिया गया विवरण इसका जीता जागता प्रमाण है । आज राजनीति में करोड़ पतियों की भरमार है । ऐसे में कोई परिवर्तन कैसे संभव होगा ये सोच का नहीं शोध का विषय है ।
देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है इसलिए पुराने लोग हाशिए पर लग रहे हैं और नये लोगों का राजनीति में धीरे-धीरे ही सही आगमन हो रहा है जो कि निश्चित रूप से एक शुभ संकेत है l
अब समय आ गया है कि नेता अपने गिरेबान में झाँकें और मतदाता भी अपने विवेक का इस्तेमाल कर देशहित एवं जनहित में ही वोट करें l चुनावी प्रक्रिया एवं व्यवस्था में भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है, नहीं तो देश विकासशील की श्रेणी से कभी बाहर नहीं निकल पाएगा l
# Subhash Verma
# Feedback at loktantralive@hotmail.com
"लोकतंत्र की कथा-व्यथा"
"डिफेंडर" (DEFENDER ) हिंदी मासिक पत्रिका जून 2017 का अंक
http://www.janmedia.in/uploads_pdf/defender_june.pdf
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